हैदराबाद दक्कन पर मुसलमानों की हुक़ूमत की शुरुआत दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी के शासनकाल ( ई) में हुई थी.
कुछ समय तक तो यहाँ के स्थानीय सूबेदार दिल्ली के अधीन रहे लेकिन साल 1347 में उन्होंने बग़ावत करके बहमनी सल्तनत की नीव रखी.
दक्कन के अंतिम शासक मीर उसमान का संबंध आसिफ़ जाही घराने से था.
जिसकी बुनियाद दक्कन के सूबेदार आसिफ़ जहाँ ने साल 1724 में उस समय डाली थी जब साल 1707 में औरंगज़ेब की मृत्यु के बाद मुग़ल बादशाहों की पकड़ देश के विभिन्न सूबों में ढीली पड़ गई थी.
आसिफ़ जहाँ को पहला निज़ाम कहा जाता है. उन्होंने साल 1739 में नादिर शाह के हमले के समय दिल्ली के मुग़ल बादशाह मोहम्मद शाह का साथ दिया था.
उन्होंने ही नादिर शाह के क़दमों में अपनी पगड़ी डालकर दिल्ली में चल रहे जनसंहार को रुकवाया था.
उर्दू साहित्य में विविधता का प्रारंभ दक्कन से ही हुआ था. उर्दू के पहले साहेबे दीवान शायर क़ुली क़ुतुब शाह और पहले गद्य लेखक मुल्ला वजही यहीं दक्कन में जनमे थे और सबसे पहले यहीं के बादशाह आदिल शाह ने दक्कनी (क़दीम उर्दू) को सरकारी भाषा घोषित किया था.
दक्कन के सर्वाधिक विख्यात उर्दू शायर वली दक्कनी हैं जो न केवल उर्दू के बड़े शायर हैं बल्कि जब 1720 में इनका दीवान दिल्ली पहुँचा तो वहाँ के साहित्य जगत में उनके नाम की धूम मच गई और यह कहा जाने लगा कि शायरी इस तरह भी हो सकती है.
उनके बाद वहाँ शायरों की एक खेप तैयार हुई जिसमें मीर तक़ी मीर, मिर्ज़ा सौदा, मीर दर्द, मीर हसन, मसहफ़ी, शाह हातिम, मिरज़ा मज़हर और क़ायेम चांदपूरी जैसे दर्जनों शायर हुए जिनका जवाब आज तक उर्दू अदब नहीं दे पाया है.
दक्कन के एक और शायर सिराज़ औरंगाबादी हैं, जिनकी ग़ज़ल:
ख़बर-ए तहैयुर-ए इश्क़ सुन, न जुनों रहा न परी रही,
न तो मैं रहा न तो तू रहा, जो रही सो बेख़बरी रही.
के बारे में नाक़ेदीन दावा करते हैं कि आज तक उर्दू में इससे बड़ी ग़ज़ल नहीं लिखी गयी.
दिल्ली के पतन के बाद हैदराबाद भरतीय उप-महाद्वीप में मुस्लिम संस्कृति एवं साहित्य का सबसे बड़ा गढ बन गया.
बहुत सारे बुद्धिजीवी, फ़नकार, शायर और साहित्यकार वहाँ आने लगे. दक्कन में उर्दू अदब की क़द्रदानी का अंदाज़ा उस्ताद ज़ोक़ के शेर से होता है, जिन्होंने निमंत्रण तो ठुकरा दिया लेकिन उर्दू को ये शेर दे गये:
इन दिनों गरचे दक्कन में है बड़ी क़दर-ए सुख़न,
कौन जाये ज़ोक़ पर दिल्ली की गलियां छोड़कर.
दाग़ देहलवी अगरचे दिल्ली की गलियों की परवाह न करते हुये दक्कन जा बसे और फ़सीहुल मुल्क का ख़िताब और मलिकुश्शुआरा (राजकवि) की उपाधि पाई.
उस समय के एक और शायर अमीर मीनाई भी दक्कन गये थे लेकिन शायद वहाँ का वातावरण उनको नहीं भाया और बहुत जल्द इस दुनिया से चले गये.
शायरों पर ही बात समाप्त नहीं होती है, बल्कि पंडित रतन नाथ सरशार और अबदुल हलीम शरर जैसे गद्य लिखने वाले और शिबली नुमानी जैसे विख्यात ज्ञानी वहाँ के शिक्षा व्यवस्था के प्रबंधक रहे.
उर्दू के महत्वपूर्ण शब्दकोश में से एक 'फ़रहंग-ए-आसफ़िया' हैदराबाद के ही संरक्षण में लिखी गई.
रियासत ने जिन विद्वानों की सरपरस्ती दी इनमें सैय्यद अबुल अला मौदूदी, क़ुरान के प्रख्यात अनुवादक मारमाडयूक पिक्थाल और मोहम्मद हमीदुल्ला जैसे विद्वान शामिल हैं.
जोश मलीहाबादी ने 'यादों की बारात' में अपने दक्कन के क़ेयाम का जो विवरण दिया है इससे अच्छी तरह अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि वहाँ इल्म और फ़न की कितनी क़दर की जाती थी.
और तो और, कुछ प्रमाणों से पता चलता है कि ख़ुद अल्लामा इक़बाल दक्कन में कोई पद पाने के इच्छुक थे, मगर जब अतया फ़ैज़ी को इस की भनक लगी तो उन्होंने अल्लामा को बहुत डांट लगाई.
उन्होंने लिखा, "मालूम हुआ कि तुम हैदराबाद में नौकरी करना चाहते हो. जबकि हिन्दुस्तान की किसी भी रियासत के राजा के यहाँ तुम्हारा नौकरी करना तुम्हारी सलाहियतों को बर्बाद कर देगा."
तब जाकर अल्लामा इक़बाल अपने इरादे से पीछे हटे.
सातवें निज़ाम मीर उसमान अली ख़ाँ अपने समय के विश्व के सबसे धनी व्यक्ति थे.
साल 1937 में टाइम मैग्ज़ीन ने उनकी तस्वीर मुख्य पृष्ठ पर छापी और उन्हें विश्व का सबसे धनी व्यक्ति कहा.
उस समय उनके धन का आंकलन दो अरब डॉलर लगाया गया था जो इस समय 35 अरब डॉलर के क़रीब होता है.
निज़ाम को शिक्षा से बहुत लगाव था. वो अपने बजट का सबसे अधिक हिस्सा शिक्षा पर ख़र्च करते थे.
इस रियासत ने अलीगढ़ विश्वविद्यालय की स्थापना में सबसे अधिक बढ़-चढकर हिस्सा लिया था.
इसके अलावा नदवतुल उलमा और पेशावर के इसलामिया कॉलेज और दूसरे शिक्षा संस्थानों की तामीर में हिस्सा लिया.
बात केवल भारतीय उपमहाद्वीप तक सीमित नहीं थी. निज़ाम उसमान अली ख़ां दुनिया भर के मुस्लमानों के संरक्षक थे.
अरब में हेजाज रेलवे इन्ही के धन सहयोग से बनाई गई थी.
वह तुर्की में उसमानी ख़िलाफ़त की समाप्ति के बाद आख़िरी ख़लीफ़ा अब्दुल हमीद को जीवन भर वज़ीफ़ा देते रहे.
मगर शिक्षा और साहित्य के इस माहौल में निज़ाम ने सैन्य शक्ति की और कोई ध्यान नहीं दिया.
इनके कमांडर इन चीफ़ अल-इदरोस का ज़िक्र उपर हो चुका है. वो मेरिट पर इस पद पर नहीं पहुँचे थे बल्कि ये पद उनको विरासत में मिला था.
क्योंकि दक्कन में ये परंपरा चली आ रही थी कि फ़ौज का सिपहसालार चुनने में अरबों को तरजीह दी जाती थी.
अल-इदरोस की सैन्य क्षमता के बारे में हैदराबाद रियासत के वज़ीर-ए-आज़म मीर लायेक़ अली अपनी क़िताब 'ट्रैजडी आफ़ हैदराबाद' में लिखते हैं कि भारतीय फ़ौज के आक्रमण के दौरान जैसे-जैसे समय बीतता जा रहा था, वैसे-वैसे इस बात का एहसास हो रहा था कि रियासत के फ़ौजी कमांडर अल-इदरोस के पास कोई योजना नहीं थी.
रियासत का कोई विभाग ऐसा नहीं था जिसमें अव्यवस्था न हो. मीर लायेक़ अली ने लिखा कि ये बात जब निज़ाम को बताई गई तो वह हैरान रह गए.
मीर लायेक़ के अनुसार, अल-इदरोस की जंगी तैयारियों का अंदाज़ा इससे लगाया जा सकता है कि लड़ाई के दौरान इनके फ़ौजी अफ़सर एक दूसरे को वायरलेस पर जो पैग़ाम दे रहे थे वो इतने पुराने कोड पर आधारित थे कि भारतीय फ़ौज बड़ी आसानी से उनको सुन लेती थी और उनको पल-पल की ख़बर मिलती रहती थी.
अबुल अला मोदूदी ने हैदराबाद के पतन से नौ महीना पहले क़ासिम रिज़वी को एक पत्र में साफ़-साफ़ लिखा था कि 'निज़ाम की हुकूमत रेत की एक दीवार है, जिसका ढह जाना निश्चित है. अमीर लोग अपनी जान और अपना धन बचा ले जाएंगे और आम अदमी पिस जाएंगे. इसलिए हर क़ीमत पर भारत से शांति का समझौता कर लिया जाए.'
मोदूदी साहब की ये भविष्यवाणी सच साबित हुई और इंग्लैंड से बड़ा एक देश केवल पाँच दिन में परास्त हो गया.ब भारत की जीत हो गई तो भारतीय हुकूमत के एजेंट के एम मुंशी निज़ाम के पास गए और उनसे कहा कि वे शाम 4 बजे रेडियो पर अपनी तक़रीर ब्रॉडकास्ट करें.
तो निज़ाम ने कहा, कैसी ब्रॉडकास्ट? मैंने तो कभी ब्रॉडकास्ट ही नहीं किया?
मुंशी ने कहा कि हुज़ूर निज़ाम, आपको कुछ नहीं करना, केवल कुछ शब्द पढ़कर सुनाने हैं.
निज़ाम ने माइक के सामने खड़े होकर मुंशी का लिखा हुआ काग़ज़ थामकर, उन्होंने भाषणा दिया जिसमें उन्होंने 'पुलिस एक्शन' का स्वागत किया और संयुक्त राष्ट्र में भारतीय हुकूमत के विरुद्ध दर्ज की गई शिकायत को वापस लेने की घोषणा की.
निज़ाम अपने जीवन में पहली बार हैदराबाद के रेडियो स्टेशन गए थे. न कोई प्रोटोकॉल और न ही कोई लाल क़ालीन. और न ही इनके आदर में हाथ बांधे, आँखें बिछाए लोग खड़े थे. न ही इनके सम्मान में कोई राष्ट्रीय गान गाया गया.
भारतीय हुकूमत ने निज़ाम को अपने क़ब्ज़े में ले लिया. साल 1967 में उनकी मौत हो गई.
जहाँ तक प्रश्न है इनके धन और दौलत का तो इनके 149 बेटों के बीच विरासत की जो लड़ाई आधी शताब्दी पहले आरंभ हुई थी, वो आज भी चल रही है.
कुछ समय तक तो यहाँ के स्थानीय सूबेदार दिल्ली के अधीन रहे लेकिन साल 1347 में उन्होंने बग़ावत करके बहमनी सल्तनत की नीव रखी.
दक्कन के अंतिम शासक मीर उसमान का संबंध आसिफ़ जाही घराने से था.
जिसकी बुनियाद दक्कन के सूबेदार आसिफ़ जहाँ ने साल 1724 में उस समय डाली थी जब साल 1707 में औरंगज़ेब की मृत्यु के बाद मुग़ल बादशाहों की पकड़ देश के विभिन्न सूबों में ढीली पड़ गई थी.
आसिफ़ जहाँ को पहला निज़ाम कहा जाता है. उन्होंने साल 1739 में नादिर शाह के हमले के समय दिल्ली के मुग़ल बादशाह मोहम्मद शाह का साथ दिया था.
उन्होंने ही नादिर शाह के क़दमों में अपनी पगड़ी डालकर दिल्ली में चल रहे जनसंहार को रुकवाया था.
उर्दू साहित्य में विविधता का प्रारंभ दक्कन से ही हुआ था. उर्दू के पहले साहेबे दीवान शायर क़ुली क़ुतुब शाह और पहले गद्य लेखक मुल्ला वजही यहीं दक्कन में जनमे थे और सबसे पहले यहीं के बादशाह आदिल शाह ने दक्कनी (क़दीम उर्दू) को सरकारी भाषा घोषित किया था.
दक्कन के सर्वाधिक विख्यात उर्दू शायर वली दक्कनी हैं जो न केवल उर्दू के बड़े शायर हैं बल्कि जब 1720 में इनका दीवान दिल्ली पहुँचा तो वहाँ के साहित्य जगत में उनके नाम की धूम मच गई और यह कहा जाने लगा कि शायरी इस तरह भी हो सकती है.
उनके बाद वहाँ शायरों की एक खेप तैयार हुई जिसमें मीर तक़ी मीर, मिर्ज़ा सौदा, मीर दर्द, मीर हसन, मसहफ़ी, शाह हातिम, मिरज़ा मज़हर और क़ायेम चांदपूरी जैसे दर्जनों शायर हुए जिनका जवाब आज तक उर्दू अदब नहीं दे पाया है.
दक्कन के एक और शायर सिराज़ औरंगाबादी हैं, जिनकी ग़ज़ल:
ख़बर-ए तहैयुर-ए इश्क़ सुन, न जुनों रहा न परी रही,
न तो मैं रहा न तो तू रहा, जो रही सो बेख़बरी रही.
के बारे में नाक़ेदीन दावा करते हैं कि आज तक उर्दू में इससे बड़ी ग़ज़ल नहीं लिखी गयी.
दिल्ली के पतन के बाद हैदराबाद भरतीय उप-महाद्वीप में मुस्लिम संस्कृति एवं साहित्य का सबसे बड़ा गढ बन गया.
बहुत सारे बुद्धिजीवी, फ़नकार, शायर और साहित्यकार वहाँ आने लगे. दक्कन में उर्दू अदब की क़द्रदानी का अंदाज़ा उस्ताद ज़ोक़ के शेर से होता है, जिन्होंने निमंत्रण तो ठुकरा दिया लेकिन उर्दू को ये शेर दे गये:
इन दिनों गरचे दक्कन में है बड़ी क़दर-ए सुख़न,
कौन जाये ज़ोक़ पर दिल्ली की गलियां छोड़कर.
दाग़ देहलवी अगरचे दिल्ली की गलियों की परवाह न करते हुये दक्कन जा बसे और फ़सीहुल मुल्क का ख़िताब और मलिकुश्शुआरा (राजकवि) की उपाधि पाई.
उस समय के एक और शायर अमीर मीनाई भी दक्कन गये थे लेकिन शायद वहाँ का वातावरण उनको नहीं भाया और बहुत जल्द इस दुनिया से चले गये.
शायरों पर ही बात समाप्त नहीं होती है, बल्कि पंडित रतन नाथ सरशार और अबदुल हलीम शरर जैसे गद्य लिखने वाले और शिबली नुमानी जैसे विख्यात ज्ञानी वहाँ के शिक्षा व्यवस्था के प्रबंधक रहे.
उर्दू के महत्वपूर्ण शब्दकोश में से एक 'फ़रहंग-ए-आसफ़िया' हैदराबाद के ही संरक्षण में लिखी गई.
रियासत ने जिन विद्वानों की सरपरस्ती दी इनमें सैय्यद अबुल अला मौदूदी, क़ुरान के प्रख्यात अनुवादक मारमाडयूक पिक्थाल और मोहम्मद हमीदुल्ला जैसे विद्वान शामिल हैं.
जोश मलीहाबादी ने 'यादों की बारात' में अपने दक्कन के क़ेयाम का जो विवरण दिया है इससे अच्छी तरह अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि वहाँ इल्म और फ़न की कितनी क़दर की जाती थी.
और तो और, कुछ प्रमाणों से पता चलता है कि ख़ुद अल्लामा इक़बाल दक्कन में कोई पद पाने के इच्छुक थे, मगर जब अतया फ़ैज़ी को इस की भनक लगी तो उन्होंने अल्लामा को बहुत डांट लगाई.
उन्होंने लिखा, "मालूम हुआ कि तुम हैदराबाद में नौकरी करना चाहते हो. जबकि हिन्दुस्तान की किसी भी रियासत के राजा के यहाँ तुम्हारा नौकरी करना तुम्हारी सलाहियतों को बर्बाद कर देगा."
तब जाकर अल्लामा इक़बाल अपने इरादे से पीछे हटे.
सातवें निज़ाम मीर उसमान अली ख़ाँ अपने समय के विश्व के सबसे धनी व्यक्ति थे.
साल 1937 में टाइम मैग्ज़ीन ने उनकी तस्वीर मुख्य पृष्ठ पर छापी और उन्हें विश्व का सबसे धनी व्यक्ति कहा.
उस समय उनके धन का आंकलन दो अरब डॉलर लगाया गया था जो इस समय 35 अरब डॉलर के क़रीब होता है.
निज़ाम को शिक्षा से बहुत लगाव था. वो अपने बजट का सबसे अधिक हिस्सा शिक्षा पर ख़र्च करते थे.
इस रियासत ने अलीगढ़ विश्वविद्यालय की स्थापना में सबसे अधिक बढ़-चढकर हिस्सा लिया था.
इसके अलावा नदवतुल उलमा और पेशावर के इसलामिया कॉलेज और दूसरे शिक्षा संस्थानों की तामीर में हिस्सा लिया.
बात केवल भारतीय उपमहाद्वीप तक सीमित नहीं थी. निज़ाम उसमान अली ख़ां दुनिया भर के मुस्लमानों के संरक्षक थे.
अरब में हेजाज रेलवे इन्ही के धन सहयोग से बनाई गई थी.
वह तुर्की में उसमानी ख़िलाफ़त की समाप्ति के बाद आख़िरी ख़लीफ़ा अब्दुल हमीद को जीवन भर वज़ीफ़ा देते रहे.
मगर शिक्षा और साहित्य के इस माहौल में निज़ाम ने सैन्य शक्ति की और कोई ध्यान नहीं दिया.
इनके कमांडर इन चीफ़ अल-इदरोस का ज़िक्र उपर हो चुका है. वो मेरिट पर इस पद पर नहीं पहुँचे थे बल्कि ये पद उनको विरासत में मिला था.
क्योंकि दक्कन में ये परंपरा चली आ रही थी कि फ़ौज का सिपहसालार चुनने में अरबों को तरजीह दी जाती थी.
अल-इदरोस की सैन्य क्षमता के बारे में हैदराबाद रियासत के वज़ीर-ए-आज़म मीर लायेक़ अली अपनी क़िताब 'ट्रैजडी आफ़ हैदराबाद' में लिखते हैं कि भारतीय फ़ौज के आक्रमण के दौरान जैसे-जैसे समय बीतता जा रहा था, वैसे-वैसे इस बात का एहसास हो रहा था कि रियासत के फ़ौजी कमांडर अल-इदरोस के पास कोई योजना नहीं थी.
रियासत का कोई विभाग ऐसा नहीं था जिसमें अव्यवस्था न हो. मीर लायेक़ अली ने लिखा कि ये बात जब निज़ाम को बताई गई तो वह हैरान रह गए.
मीर लायेक़ के अनुसार, अल-इदरोस की जंगी तैयारियों का अंदाज़ा इससे लगाया जा सकता है कि लड़ाई के दौरान इनके फ़ौजी अफ़सर एक दूसरे को वायरलेस पर जो पैग़ाम दे रहे थे वो इतने पुराने कोड पर आधारित थे कि भारतीय फ़ौज बड़ी आसानी से उनको सुन लेती थी और उनको पल-पल की ख़बर मिलती रहती थी.
अबुल अला मोदूदी ने हैदराबाद के पतन से नौ महीना पहले क़ासिम रिज़वी को एक पत्र में साफ़-साफ़ लिखा था कि 'निज़ाम की हुकूमत रेत की एक दीवार है, जिसका ढह जाना निश्चित है. अमीर लोग अपनी जान और अपना धन बचा ले जाएंगे और आम अदमी पिस जाएंगे. इसलिए हर क़ीमत पर भारत से शांति का समझौता कर लिया जाए.'
मोदूदी साहब की ये भविष्यवाणी सच साबित हुई और इंग्लैंड से बड़ा एक देश केवल पाँच दिन में परास्त हो गया.ब भारत की जीत हो गई तो भारतीय हुकूमत के एजेंट के एम मुंशी निज़ाम के पास गए और उनसे कहा कि वे शाम 4 बजे रेडियो पर अपनी तक़रीर ब्रॉडकास्ट करें.
तो निज़ाम ने कहा, कैसी ब्रॉडकास्ट? मैंने तो कभी ब्रॉडकास्ट ही नहीं किया?
मुंशी ने कहा कि हुज़ूर निज़ाम, आपको कुछ नहीं करना, केवल कुछ शब्द पढ़कर सुनाने हैं.
निज़ाम ने माइक के सामने खड़े होकर मुंशी का लिखा हुआ काग़ज़ थामकर, उन्होंने भाषणा दिया जिसमें उन्होंने 'पुलिस एक्शन' का स्वागत किया और संयुक्त राष्ट्र में भारतीय हुकूमत के विरुद्ध दर्ज की गई शिकायत को वापस लेने की घोषणा की.
निज़ाम अपने जीवन में पहली बार हैदराबाद के रेडियो स्टेशन गए थे. न कोई प्रोटोकॉल और न ही कोई लाल क़ालीन. और न ही इनके आदर में हाथ बांधे, आँखें बिछाए लोग खड़े थे. न ही इनके सम्मान में कोई राष्ट्रीय गान गाया गया.
भारतीय हुकूमत ने निज़ाम को अपने क़ब्ज़े में ले लिया. साल 1967 में उनकी मौत हो गई.
जहाँ तक प्रश्न है इनके धन और दौलत का तो इनके 149 बेटों के बीच विरासत की जो लड़ाई आधी शताब्दी पहले आरंभ हुई थी, वो आज भी चल रही है.